Wednesday, June 18, 2008

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धारासार बरसती बारिश में
ठिठुरते, कांपते खड़े दरख्त
ठंडी हवाओं से सिहरती घास
मकानों की छत से फूटते झरने
गलियों में बहते दरिया
दरियाओं पे सफर करती कश्तियाँ
छतरियाँ ताने काम पे जाते लोग
नाचते, छपाके भरते नंगे बच्चें
चाय के गर्म प्यालों से उठती भाप
अब के बरस तो ऊपरवाला महरबान है
दिल खोल के दे रहा है- कहते है बूढे
आओ इस सीन को काट के रख ले
साइंसदान कहते हैं- आने वाले वक्तों में बारिशें कम होगी
रिश्तें सूखते जायेंगे
शायद ऊपरवाला भी इंसानों की तरह सख्त दिल हो जाएगा